जहां गूंजती थी रणभेरी, अब वहां सन्नाटा है,
जहां लहू से सींची गई थी आजादी,
आज वहां सियासत के बाजार का नशा छाया है।
ये धरती, जहां सत्य और धर्म का था राज,
अब यहां भ्रष्टाचार की हवाएं हैं।
कानून कागजों में कैद है,
और न्याय बिकता है नोटों के तराजू पर।
हर गली, हर मोड़ पर अंधेरा है,
जहां सड़कों पर जले सपनों की राख दिखती है।
औरतों की चीखें हवा में गुम हो जाती हैं,
मंदिर, मस्जिद की बहस में इंसानियत जल जाती है।
जहां रक्षक ही भक्षक बन गए हैं,
और विश्वास की जगह डर ने ले ली है।
क्या यही है वो सपना,
जिसे आंखों में लेकर हमारे वीर मरे थे?
क्या यही है वो मिट्टी,
जिसे माथे पर लगाकर हमने स्वाभिमान का पाठ पढ़ा था?
आज भी हर रोज एक किसान अपना घर छोड़ता है,
सूखे खेत और झूठे वादों से हारकर।
आज भी बच्चे स्कूल नहीं,
कारखानों में अपने सपने गलाते हैं।
हर तरफ से एक ही सवाल उठता है,
क्या ये वही भारत है, जिस पर गर्व था?
नदियों में अब जीवन नहीं, सिर्फ लाशें बहती हैं,
सदियों से जो थीं अमृतधारा, अब विष की गाथा कहती हैं।
कंक्रीट के महलों की हवस में,
प्रकृति की छाती चीरी जाती है।
ये देश, जो कभी गुरु था,
आज ज्ञान के लिए दूसरों का मोहताज है।
जहां युवा अपना देश छोड़कर सपनों की तलाश में निकलते हैं,
क्योंकि यहां उन्हें सपने देखने का हक तक नहीं।
पर कहानी खत्म नहीं होती,
हर तूफान के बाद एक सवेरा आता है।
शायद इस देश को फिर से उसकी जड़ों से जोड़ने का वक्त आ गया है।
शायद किसी को खड़ा होना होगा,
इन काली रातों में दिया जलाने के लिए।
मैं वो लिखूंगा, जो अनसुना रह गया,
मैं वो कहूंगा, जो अनकहा रह गया।
कलम की धार तलवार से तेज होगी,
और हर अन्याय का हिसाब लिखा जाएगा।
- यश वर्धन गौर, युवा कवि, जयपुर
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