15 अगस्त 1947 को जैसे ही सत्ता का हस्तांतरण हुआ और अंग्रेज़ भारत से जाने के लिए अपना बोरिया-बिस्तर समेटने लगे, मीडिया और सरकार के संबंध बुनियादी तौर से बदल गये। एक तरफ़ तो अंग्रेज़ों द्वारा लगायी गयी पाबंदियाँ प्रभावी नहीं रह गयीं, और दूसरी तरफ़ ब्रिटिश शासन की पैरोकारी करने वाले ज़्यादातर अख़बारों का स्वामित्व भारतीयों के हाथ में चल गया। लेकिन इससे भी ज़्यादा महत्त्वपूर्ण यह था कि मीडिया ने राजनीतिक नेतृत्व के साथ कंधे से कंधा मिला कर आधुनिक भारतीय राष्ट्र का निर्माण करना शुरू किया। मीडिया के विकास का यह दूसरा चरण अस्सी के दशक तक जारी रहा। इस लम्बे दौर के चार उल्लेखनीय आयाम थे :
- एक सुपरिभाषित ‘राष्ट्र-हित’ के आधार पर आधुनिक भारत के निर्माण में सचेत और सतर्क भागीदारी की परियोजना,
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में कटौती करने की सरकारी कोशिशों के ख़िलाफ़ संघर्ष,
- विविधता एवं प्रसार की ज़बरदस्त उपलब्धि के साथ-साथ भाषाई पत्रकारिता द्वारा अपने महत्त्व और श्रेष्ठता की स्थापना, और
- प्रसारण-मीडिया की सरकारी नियंत्रण से एक सीमा तक मुक्ति।
स्वतंत्र भारत में सरकार को गिराने या बदनाम करने में प्रेस ने कोई रुचि नहीं दिखाई। लेकिन साथ ही वह सत्ता का ताबेदार बनने के लिए तैयार नहीं था। उसका रवैया रेडियो और टीवी से अलग तरह का था। रेडियो-प्रसारण करने वाली 'आकाशवाणी' पूरी तरह से सरकार के हाथ में थी। 1959 में ‘शिक्षात्मक उद्देश्यों’ से शुरू हुए टेलिविज़न (दूरदर्शन) की प्रोग्रामिंग की ज़िम्मेदारी भी रेडियो को थमा दी गयी थी। इसके विपरीत शुरू से ही निजी क्षेत्र के स्वामित्व में विकसित हुए प्रेस ने सरकार, सत्तारूढ़ कांग्रेस, विपक्षी दलों और अधिकारीतंत्र को बार-बार स्व-परिभाषित राष्ट्र-हित की कसौटी पर कस कर देखा। यह प्रक्रिया उसे व्यवस्था का अंग बन कर उसकी आंतरिक आलोचना करने वाली सतर्क एजेंसी की भूमिका में ले गयी। भारतीय मीडिया के कुछ अध्येताओं ने माना भी है कि अंग्रेज़ों के बाद सरकार को दिया गया प्रेस का समर्थन एक ‘सतर्क समर्थन’ ही था।
प्रेस ने ‘राष्ट्र-हित’ की एक सर्वमान्य परिभाषा तैयार की जिसे मनवाने के लिए न कोई मीटिंग की गयी और न ही कोई दस्तावेज़ पारित किया गया। पर इस बारे में कोई मतभेद नहीं था कि उदीयमान राष्ट्र-राज्य जिस ढाँचे के आधार पर खड़ा होगा, उसका चरित्र लोकतांत्रिक और सेकुलर ही होना चाहिए। उसने यह भी मान लिया था कि ऐसा करने के लिए उत्पीड़ित सामाजिक तबकों और समुदायों का लगातार सबलीकरण अनिवार्य है। प्रेस-मालिक, प्रबंधक और प्रमुख पत्रकार अपने-अपने ढंग से यह भी मानते थे कि इस लक्ष्य को वेधने के लिए ग़रीबी को समृद्धि में बदलना पड़ेगा जिसका रास्ता वैकासिक अर्थशास्त्र और मिश्रित अर्थव्यवस्था से हो कर जाता है। स्वतंत्र भारत की विदेश नीति (गुटनिरपेक्षता और अन्य देशों के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व) के प्रति भी मीडिया ने सकारात्मक सहमति दर्ज करायी।
दूसरी तरफ़ सरकार ने अपनी तरफ़ से प्रेस के कामकाज को विनियमित करने के लिए एक संस्थागत ढाँचा बनाना शुरू कर दिया। 1952 और 1977 में दो प्रेस आयोग गठित किये गये। 1965 में एक संविधानगत संस्था प्रेस परिषद् की स्थापना हुई। 1956 में 'रजिस्ट्रेशन ऑफ़ बुक्स एक्ट' के तहत प्रेस रजिस्ट्रार ऑफ़ इण्डिया की स्थापना की गयी। इन उपायों में प्रेस की आज़ादी को सीमित करने के अंदेशे भी देखे जा सकते थे, पर प्रेस ने इन कदमों पर आपत्ति नहीं की। उसे यकीन था कि सरकार किसी भी परिस्थिति में संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत मिलने वाली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी का उल्लंघन नहीं करेगी। संविधान में स्पष्ट उल्लेख न होने के बावजूद सर्वोच्च कोर्ट ने इस गारंटी में प्रेस की स्वतंत्रता को भी शामिल मान लिया था। लेकिन प्रेस का यह यकीन 1975 में टूट गया जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने अपने राजनीतिक संकट से उबरने के लिए देश पर आंतरिक आपातकाल थोप दिया। नतीजे के तौर पर नागरिक अधिकार मुल्तवी कर दिये गये, स्वतंत्र अभिव्यक्ति और प्रेस पर पाबंदियाँ लगा दी गयीं। 253 पत्रकार नज़रबंद किये गये, सात विदेशी संवाददाता निष्कासित कर दिये गये, सेंसरशिप थोपी गयी और प्रेस परिषद् भंग कर दी गयी। भारतीय प्रेस अपने ऊपर होने वाले इस आक्रमण का उतना विरोध नहीं कर पाया, जितना उसे करना चाहिए था। किन्तु कुछ ने सरकार के सामने घुटने टेक दिये, पर कुछ ने नुकसान सह कर भी आपातकाल की पाबंदियों का प्रतिरोध किया।
उन्नीस महीने बाद यह आपातकाल चुनाव की कसौटी पर पराजित हो गया, पर इस झटके के कारण पहली बार भारतीय प्रेस ने अपनी आज़ादी के लिए लड़ने की ज़रूरत महसूस की। राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया में हिस्सेदारी करने की उसकी भूमिका पहले से भी अधिक ‘सतर्क’ हो गयी। पत्रकारों की सतर्क निगाह ने देखा कि आपातकाल की पराजय के बाद भी राजनीतिक और सत्ता प्रतिष्ठान में प्रेस की स्वतंत्रता में कटौती करने की प्रवृत्ति ख़त्म नहीं हुई है। इसके बाद अस्सी का दशक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए चलाये गये संघर्षों का दशक साबित हुआ। 1982 में बिहार प्रेस विधेयक और 1988 में लोकसभा द्वारा पारित किये गये मानहानि विधेयक को राजसत्ता पत्रकारों द्वारा किये गये आंदोलनों के कारण कानून में नहीं बदल पाये। दूसरी तरफ़ इंदिरा गाँधी की सरकार द्वारा एक्सप्रेस समाचार-पत्र समूह को सताने के लिए चलाये गये अभियान से यह भी साफ़ हुआ कि किसी अख़बार द्वारा किये जा रहे विरोध को दबाने के लिए कानून बदलने के बजाय सत्ता का थोड़ा सा दुरुपयोग ही काफ़ी है।
आपातकाल के विरुद्ध चले लोकप्रिय संघर्ष के परिणामस्वरूप सारे देश में राजनीतीकरण की प्रक्रिया पहले के मुकाबले कहीं तेज़ हो गयी। लोकतंत्र और उसकी अनिवार्यता के प्रति नयी जागरूकता ने अख़बारों की तरफ़ नये पाठकों का ध्यान आकर्षित किया। ये नये पाठक निरंतर बढ़ती जा रही साक्षरता की देन थे। बढ़ती हुई प्रसार संख्याओं के फलस्वरूप मुद्रित मीडिया का दृष्टिकोण व्यावसायिक और बाज़ारोन्मुख हुआ। राजनीतीकरण, साक्षरता और पेशेवराना दृष्टिकोण के साथ इसी समय एक सुखद संयोग के रूप में नयी प्रिंटिंग प्रौद्योगिकी जुड़ गयी। डेक्स-टॉप पब्लिशिंग सिस्टम और कम्प्यूटर आधारित डिज़ाइनिंग ने अख़बारों और पत्रिकाओं के प्रस्तुतीकरण में नया आकर्षण पैदा कर दिया। इस प्रक्रिया ने विज्ञापन से होने वाली आमदनी में बढ़ोतरी की। अस्सी के दशक के दौरान हुए इन परिवर्तनों में सबसे महत्त्वपूर्ण था भाषाई पत्रकारिता का विकास। हिंदी, पंजाबी, मराठी, गुजराती, बांग्ला, असमिया और दक्षिण भारतीय भाषाओं के अख़बारों को इस नयी परिस्थिति का सबसे ज़्यादा लाभ हुआ। अस्सी का दशक इन भाषाई क्षेत्रों में नये पत्रकारों के उदय का दशक भी था। इस विकासक्रम के बाद भाषाई पत्रकारिता ने फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा। नयी सदी में राष्ट्रीय पाठक सर्वेक्षण के आँकड़ों ने बताया कि अब अंग्रेज़ी प्रेस के हाथों में मीडिया की लगाम नहीं रह गयी है। सबसे अधिक प्रसार संख्या वाले पहले दस अख़बारों में अंग्रेज़ी का केवल एक ही पत्र रह गया, वह भी नीचे से दूसरे स्थान पर।
अस्सी के दशक में ही प्रसारण-मीडिया के लिए एक सीमा तक सरकारी नियंत्रण से मुक्त होने की परिस्थितियाँ बनीं। 1948 में संविधान सभा में बोलते हुए जवाहरलाल नेहरू ने वायदा किया था कि आज़ाद भारत में ब्रॉडकास्टिंग का ढाँचा ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन (बीबीसी) के तर्ज़ पर होगा। यह आश्वासन पूरा करने में स्वतंत्र भारत की सरकारों को पूरे 42 साल लग गये। इसके पीछे रेडियो और टीवी को सरकार द्वारा निर्देशित राजनीतिक-सामाजिक परिवर्तन के लिए ही इस्तेमाल करने की नीति थी। इस नीति के प्रभाव में रेडियो का तो एक माध्यम के रूप में थोड़ा-बहुत विकास हुआ, पर टीवी आगे नहीं बढ़ पाया। इतना ज़रूर हुआ कि 1975-76 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने अमेरिका से एक उपग्रह उधार लिया ताकि देश के विभिन्न हिस्सों में 2,400 गाँवों में कार्यक्रमों का प्रसारण हो सके। इसे 'सेटेलाइट इंस्ट्रक्शनल टेलिविज़न एक्सपेरीमेंट' (साइट) कहा गया। इसकी सफलता से विभिन्न भाषाओं में टीवी कार्यक्रमों के निर्माण और प्रसारण की सम्भावनाएँ खुलीं। फिर 1982 में दिल्ली एशियाड का प्रसारण करने के लिए रंगीन टीवी की शुरुआत हुई। इसके कारण टीवी के प्रसार की गति बढ़ी। 1990 तक उसके ट्रांसमीटरों की संख्या 519 और 1997 तक 900 हो गयी। बीबीसी जैसा स्वायत्त कॉरपोरेशन बनाने के संदर्भ में 1966 तक केवल इतनी प्रगति हो पायी कि भारत के पूर्व महालेखा नियंत्रक ए.के. चंदा के नेतृत्व में बनी कमेटी द्वारा आकाशवाणी और दूरदर्शन को दो स्वायत्त निगमों के रूप में गठित करने की सिफ़ारिश कर दी गयी। बारह साल तक यह सिफ़ारिश भी ठंडे बस्ते में पड़ी रही। 1978 में बी.जी. वर्गीज की अध्यक्षता में गठित किये गये एक कार्यदल ने 'आकाश भारती' नामक संस्था गठित करने का सुझाव दिया। साल भार बाद मई, 1979 में प्रसार भारती नामक कॉरपोरेशन बनाने का विधेयक संसद में लाया गया जिसके तहत आकाशवाणी और दूरदर्शन को काम करना था। प्रस्तावित कॉरपोरेशन के लिए वर्गीज कमेटी द्वारा सुझाये गये आकाश भारती के मुकाबले कम अधिकारों का प्रावधान किया गया था। जो भी हो, जनता पार्टी की सरकार गिर जाने के कारण यह विधेयक पारित नहीं हो पाया।
1985 से 1988 के बीच दूरदर्शन को आज़ादी का एक हल्का सा झोंका नसीब हुआ। इसका श्रेय भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी भास्कर घोष को जाता है जो इस दौरान दूरदर्शन के महानिदेशक रहे। प्रसार भारती विधेयक पारित कराने की ज़िम्मेदारी विश्वनाथ प्रताप सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार ने 1990 में पूरी की। लेकिन प्रसार भारती गठित होते-होते सात साल और गुज़र गये। तकनीकी रूप से कहा जा सकता है कि आज दूरदर्शन और आकाशवाणी स्वायत्त हो गये हैं। लेकिन हकीकत में सूचना और प्रसारण मंत्रालय का एक अतिरिक्त सचिव ही प्रसार भारती का मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) होता है। अगर यह स्वायत्तता है तो बहुत सीमित किस्म की।
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